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Sanskrit Shlok with Meaning। संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

Sanskrit Shlok हमारे ऋषियों और मुनियों द्वारा रचित वह shlok है जो हमारे जीवन (सम्पूर्ण मनुष्य जीवन) को समृद्ध करने और जीवन के पथप्रदर्शक होते हैं और संजीवनी की तरह काम करते है। इस Article में Sanskrit Shlok with Meaning के रूप में हमारे वेद, पुराण, गीता आदि ग्रंथों के महत्वपूर्ण श्लोकों का अर्थ सहित संकलन किया हूँ।

Sanskrit Shlok अर्थ सहित

त्वम् एव माता च पिता त्वम् एव। त्वम् एव बंधु: च सखा त्वम् एव।
त्वम् एव विद्या द्रविणम् त्वम् एव। त्वम् एव सर्वम् मम देव देव। 1

अर्थात् – हे ईश्वर ! तुम्हीं मेरी माता हो, तुम्हीं मेरे पिता हो, तुम्हीं मेरे भाई हो तथा तुम्हीं मेरे मित्र हो। तुम्हीं मेरे ज्ञान (विद्या) हो , तुम्हीं मेरा धन (संपदा) हो , तुम्हीं मेरे पराक्रम, सामर्थ्य आदि) हो। हे देवो के देव तुम्हीं मेरे सबकुछ हो।

ऊँ भूर्भुवः स्वः,
तत्सवितुर्वरेण्यं,
भर्गो देवस्य धीमहि,
धियो योनः प्रचोदयात2

अर्थात् – उस परब्रह्म, प्राणस्वरूप, दुःखविनाशक, सुखस्वरूप, तेजस्वी,सर्वश्रेष्ठ, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। परमात्मा हमारी बुद्धि को शुभ कार्यों (सन्मार्ग) में प्रेरित करे।

गायत्री मन्त्र के शब्दों का अर्थ

  • ओ3म् – सर्व देवता परमात्मा (ब्रह्म)
  • भू – प्राणों से प्यारा (प्राणस्वरूप)
  • भुवः – दुख विनाशक
  • स्वः – सुखस्वरूप
  • तत् – उस
  • सवितुः – उत्पादक, प्रकाशक, प्रचारक (तेजस्वी)
  • वरेण्यं  – उपयुक्त (श्रेष्ठ)
  • भर्गो  – शुद्ध विज्ञान स्वरूप का(पाप नाशक)
  • देवस्य – देव के
  • धीमहि – हम ध्यान करें
  • धियो – बुद्धि को
  • यो  – जो
  • नः – हमारी
  • प्रचोदयात् – शुभ कार्यों में प्रेरित करें।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥ 3

अर्थात् – गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही महादेव हैं। गुरु साक्षात भगवान हैं, ऐसे परम गुरु को प्रणाम है।
अर्थात् – गुरु ही निर्माता है, गुरु ही पालनहार है, गुरु ही संघारक है। गुरु ही परमात्मा है, ऐसे महान गुरु को नमन है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः श्लोक के शाब्दिक अर्थ

  • गुरु – ‘गु’ –अज्ञानता रूपी अँधेरा,  ‘रू’ – प्रकाश फ़ैलाने वाला (अज्ञानता मिटाने वाला)।
  • गुरु का अर्थ –अज्ञानता रूपी अँधेरा दूर कर ज्ञान रूपी प्रकाश फ़ैलाने वाला।
  • ब्रह्मा – जीव जगत का निमार्ण कर्ता।
  • विष्णु – भगवान विष्णु “पालनहार” कहें जाते है।
  • देवो – देवता
  • महेश्वर – भगवान् शंकर।
  • साक्षात् – स्वयं
  • परमब्रह्म – परमात्मा
  • तस्मै – ऐसे / उन्हे
  • श्रीगुरुवे – परम गुरु को
  • नमः – नमन/प्रणाम

यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
आनंद ब्राह्मणो विद्वान् न विभेति कुतश्चन्॥ 4

अर्थात् – जो वाणी (आवाज) मन का साथ (सहयोग) न पाकर वापस लौट जाता है, वह आनन्द स्वरूप ब्रह्म (ईश्वर) को जानने वाला कभी भी किसी से भयभीत नहीं नहीं होता है।

असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय॥ 5

अर्थात् – झूठ नहीं सत्य प्रदान करो। अन्धकार नहीं प्रकाश प्रदान करो । मृत्यु नहीं अमरत्व प्रदान करो।

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधनम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूपा॥ 6

अर्थात् – तुम ही आदि देव हो, पुरातन पुरुष हो, इस संसार के सबसे बड़े भण्डार हो, सब कुछ जाननेवाले हो और जानने योग्य हो, तुम ही परमधाम (अद्वितीय ) स्थान हो, तुम्हारे द्वारा ही यह सम्पूर्ण जगत कण-कण में व्याप्त है।

नमः पुर: तादथ पृष्ठतस्ते। नम: स्तु ते सर्वत्र एव सर्व।
अनंतवीर्यमितविक्रमस्त्वं। सर्वं समाप्नोसि ततोऽसि सर्वः॥ 7

अर्थात् – तुम्हें सामने से प्रणाम है, तुम्हें पीछे से भी प्रणाम है, तुम्हें सभी ओर से प्रणाम है। तुम अनन्त शक्तिमान हो, तुम ही अत्यन्त पराक्रम दिखाने वाले हो, तुम ही सबको अपने-आप में समाहित करने वाले हो, सम्पूर्ण संसार तुम्हारे द्वारा ही संचालित (व्याप्त) है।

अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवदुर्विदग्घं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति॥ 8

अर्थात् – ज्ञानहीन सुखपूर्वक समझाया जा सकता है, जो विशेष ज्ञानवान है उसे और भी सुख पूर्वक समझाया जा सकता हैं लेकिन अल्प ज्ञान से जो अहंकारपूर्ण है। उस मनुष्य (इंशान) को भगवान भी नहीं खुश कर सकते हैं।

Sanskrit Shlok with Meaning

येषां न विद्या न तपो न दानं न च अपि शीलं न गुणो न धर्मः।
 ते मर्त्यलोके भुवि भार्भूता मनुष्यरूपेण मृगश्चरन्ति॥ 9

अर्थात् – जिसके पास न विद्या है, न तप है, न दान है, न शील (चरित्र) है, न गुण है और ना ही धर्म है। वे लोग इस भूलोक पर बोझ के समान है तथा मनुष्य (इंशान) के रूप में होते हुए भी (हिरण) जानवरों की तरह विचरण (व्यवहार) करते हैं।
sanskrit shlok with meaning

जड़्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं मनः उन्नतिम् दिशा इति पापम् अकरोति।
 चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिम् संत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम॥ 10

अर्थात् – जो बुद्धि के अज्ञानता को हरती है, वाणी से सत्य को सींचती है, मान-सम्मान और उन्नति को बढ़ाती है, अपयश को दूर करती है, मनचीत को आनंदित करती है, चारों दिशाओं में यश को रौशन करती है, ऐसी सत्य का संगत इंशानो के लिए क्या नहीं करती है। अर्थात् सब कुछ कर सकती है।

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्तिं मध्याः।
विघ्नैः पुनः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति॥ 11

अर्थात् – निम्न श्रेणी के लोग आने वाले विघ्न के भय से कार्य को प्रारम्भ ही नहीं करते, मध्यम श्रेणी के लोग कार्य का प्रारम्भ कर विघ्न आ जाने पर छोड़ देते हैं, लेकिन उत्तम श्रेणी के लोग कार्य को प्रारम्भ कर और  विघ्नों से द्वारा बार-बार आहत, पीड़ित होते हुए भी  कार्य को परित्याग नहीं करते हैं।

निन्दन्तु नीति निपुना यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविष्टु गच्छतु वा यथा इष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्यायात्पथः प्रवचलन्ति पदं न धीराः॥ 12

अर्थात् – नीति-निपुण लोग निन्दा करे या स्तुति करें, लक्ष्मी (धन-दौलत) आये अथवा अपनी इच्छा से चली जायें, अभी ही मरना हो या 100 साल के बाद मरना हो लेकिन धैर्यवान लोग अपने कर्तव्य पथ से कदम पीछे नहीं हटाते हैं और कभी घबराते भी नहीं हैं ।

सिंह शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु।
प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः॥ 13

अर्थात् – सिंह का शिशु (बच्चा) भी मद से मलिन हुए गाल वाले हाथियों पर आक्रमण करता है, बलवानों की यह प्रकृति अवस्था नहीं बल्कि तेज (प्रतिभा) के कारण होता है।

आरम्भगुर्वी  क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमुपैति पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्धपरार्थभिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥ 14

अर्थात् – जिस प्रकार दिन के पूर्वार्द्ध के प्रारम्भ में सूर्य की छाया हल्की लेकिन बाद में क्रमशः बढ़ने वाली होती है और अपरार्द्ध की छाया बड़ी होती है, लेकिन क्रमशः क्षीण (घटने) होने वाली होती है। उसी प्रकार सज्जन की मित्रता पहले हल्की और क्रमश: प्रगाढ़ होती है तथा दुष्ट की मित्रता प्रारम्भ में बहुत ही प्रगाढ़ लेकिन धीरे-धीरे समाप्त होने वाली होती है।

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पुटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिरव्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥ 15

अर्थात् – विपत्ति में धैर्य, उन्नति काल में क्षमा, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में पराक्रम, यश प्राप्ति में अभिरुचि और शास्त्र में आसक्ति, महात्माओं का ये प्रकृतिसिद्ध लक्षण है।

यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः।
 समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते॥ 16

अर्थात् – जिसके कर्म को सर्दी-गर्मी, भय-आनन्द और उन्नति-अवनति विघ्न नहीं डालता है,  वही व्यक्ति पण्डित कहे जाते हैं।

Sanskrit Shlok with Hindi Meaning

तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम्।
उपायज्ञो मनुष्यानां नरः पण्डित उच्यते॥ 17

अर्थात् – सभी जीवों के तत्व को जानने वाले, सभी कर्म के योग को जानने वाले और मनुष्यों में उपाय जानने वाले व्यक्ति पण्डित कहे गये हैं।

 अनाहुतः प्रविशति अपृष्टो बहुभाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढ़चेता नराधमः॥ 18

अर्थात् – मूर्ख हृदय वाला नीच व्यक्ति बिना बुलाये हुए प्रवेश करता (आता) है। बिना पूछे हुए बहुत बोलता है और अविश्वसनीय पर भी विश्वास करता है।

 एको धर्मः परंश्रेयः क्षमैका शांतिरुत्तमा।
विद्यैका परमा तृप्तिः अहिंसका सुखावहा॥ 19

अर्थात् – मात्र एक धर्म ही सबसे बड़ा धन है। एक क्षमा ही सबसे उत्तम शान्ति है। विद्या ही एक ऐसी वस्तु है जिससे अत्यधिक तृप्ति मिलती है और एक अहिंसा ही ऐसी है जो श्रेष्ठ सुखों को प्रदान करती है।

 त्रिविविधं नरकस्येदं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत्॥ 20

अर्थात् – नरक के ये तीन द्वार होते हैं – काम, क्रोध तथा लोभ जो अपने-आप को नष्ट कर देता है। इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।

 षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तंद्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घ सूत्रता॥ 21

अर्थात् – उन्नति की इच्छा रखनेवाले पुरुषों (मनुष्यों) को निद्रा (अधिक सोना); तन्द्रा (उंघना) भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता (लम्बे समय तक कार्य करने की प्रवृति) इन छह दोषों (अवगुण) को हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए।

 सत्येन रक्ष्यतेधर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते॥ 22

अर्थात् – धर्म की रक्षा सत्य से होती है। विद्या की रक्षा योग (अभ्यास) से होती है। रूप की रक्षा मृजा (उबटन) से होती है और कुल (वंश) की रक्षा शिष्ट व्यवहार (आचरण) से होती है।

 सुलभा पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥ 23

अर्थात् – हे राजन्! हमेशा प्रिय बोलने वाले पुरुष (व्यक्ति )सरलता से मिल जाते हैं लेकिन कट्टु वचन और उचित बोलने वाले और सुनने वाले बहुत कम (दुर्लभ) हैं।

 पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः।
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्य विशेषतः॥ 24

अर्थात् – स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी, पूजनीय, महाभाग्यशालिनी, पुण्यमयी और घर को प्रकाशित करनेवाली कही गई है। इसलिए स्त्रियाँ विशेष रूप से रक्षा करने योग्य होती हैं।

Small Easy Sanskrit Shlok

 अकीर्ति विनयोहन्ति हन्त्यनार्थं पराक्रमः।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम्॥ 25

अर्थात् – विनम्रता अपयश को दूर करती है, परिश्रम गरीबी दूर करता है, क्षमा सदैव क्रोध को दूर करता है और सुन्दर आचरण बूरी आदतों को दूर करता है।

पिता स्वर्गधर्मौश्च पिता हि परमं तप:।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥ 26

अर्थात् – पिता ही स्वर्ग है, पिता ही धर्म है, पिता ही सबसे बड़ा तप है । पिता में प्रीति आने पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं।

अवशेन्द्रियचित्तानां हस्तिस्नानमिव क्रिया।
दुर्भगाभरणप्रायो ज्ञानं भारः क्रियां बिना॥ 27

अर्थात् – जिसकी इन्द्रियाँ और मन वश में नहीं होती हैं, उसकी क्रिया हाथी के स्नान की तरह निरर्थक होती है। दुर्भाग्यशाली लोगों का ज्ञान सदैव कार्य के बिना बोझ (बेकार) हो जाता है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥ 28

अर्थात् – यह अपना है, यह पराया है। ऐसी गणना नीच बुद्धि वाले करते हैं। उदार चरित्रवालों के लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी ही कुटुम्ब (परिवार) होता है।

Vidya Sanskrit Shlok

न चौरहार्यं न च भ्रातृभाज्यं न राजहार्यं न च भारकारि ।
व्ययेकृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥ 29

अर्थात् – जिसे न चोर चुरा सकता है, न भाई हिस्सा बँटा सकता है, न राजा हरण कर सकता है, और जो न भार स्वरुप ही है, जो प्रतिदिन उपयोग करने पर भी बढ़ता है, ऐसी विद्या धन सभी धनों में सर्वश्रेष्ठ धन है।

अधमा धनमिच्छन्ति धनं मनं च मध्यमाः।
उत्तमा मनमिच्छन्ति मनो हि-महतां धनम्॥ 30

अर्थात् – निम्न वर्ग धन चाहता है और मध्यम वर्ग धन और मान-सम्मान दोनों चाहता है। श्रेष्ठ मनुष्य (उत्तम) सम्मान चाहते हैं, क्योंकि सम्मान ही महानों का सबसे बड़ा धन है।

विद्वान् प्रशस्त्यते लोके विद्वान् सर्वत्र गौरवम्।
विद्या लभते सर्व विद्या सर्वत्र पूज्यते॥ 31

अर्थात् – विद्वान संसार में प्रशंसा पाते हैं। विद्वानों को सब जगह सम्मान मिलता है। विद्या के द्वारा सब कुछ पाया जा सकता है। विद्या का सब जगह पूजा होती है।

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकम् प्रच्छन्नगुप्तम् धनम्, विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरुणाम् गुरुः।
विद्या बंधुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्, विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्या-विहीनः पशु॥ 32

अर्थात् – विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, विद्या गुप्त धन है. वह भोग देनेवाली है , यशदेने वाली है , और सुखकारी है। विद्या गुरुओं की गुरु है, विदेश में विद्या भाई के समान है। विद्या बड़ी (परम ) देवता है, नृपों में विद्या (ज्ञान) की ही पूजा होती है, धन (दौलत) की नहीं, विद्याविहीन व्यक्ति (इंशान) पशु (जानवर) के समान होता है।

नारिकेलसमाकाराः दृश्यन्तेऽपि हि सज्जनाः।
अन्ये बदरिकाकाराः बहिरेव मनोहराः॥ 33

अर्थात् – सज्जन मनुष्य नारियल की तरह बाहर से कठोर और अन्दर से कोमल होते है। जबकि दुष्ट मनुष्य बेरी की तरह बाहर से कोमल और अन्दर उनके कटुता भरी रहती है।

वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशनान्यपि।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि॥ 34

अर्थात् – सौ मूर्ख पुत्रों से तो एक गुणवान पुत्र अच्छा होता है । जैसे एक अकेला चंद्र अंधकार का नाश करता है, परन्तु ताराओं के समूह से अंधकार का नाश नहीं होता है ।

ऋणकर्ता पिता शत्रुर्माता च व्यभिचारिणी।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः॥ 35

अर्थात् – अपनी संतान पर ऋण का भार छोड़ने वाला पिता शत्रु के समान होता है। व्यभिचारिणी माँ भी सन्तान के लिए शत्रु की तरह होती है। इसी तरह बहुत अधिक सुन्दर पत्नी भी पति की शत्रु की तरह होती है और मूर्ख पुत्र भी शत्रु के समान ही माना गया है।

Sanskrit Shlok on Life

शशिना शोभते रात्रि सृष्टि: सूर्येण शोभते।
सत्येन शोभते वाणी सदाचारेण जीवनम्॥ 36

अर्थात् – चंद्रमा से रात शोभित होती है, सृष्टि सूर्य से शोभित होती है। सत्य से वाणी शोभित होती है, जीवन सदाचार से शोभित होता है।

साहित्य-संगीत-कलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छ-विषाणहीनः।
तृणं न खदन्नपि जीवमानः तद् भागधेयं परमं पशूनाम्॥ 37

अर्थात् – साहित्य संगीत तथा कला से रहित व्यक्ति वास्तव में पूँछ व सींग के बिना पशु है, जो घास न खाता हुआ भी (पशु के समान )
जीवित है। यह उन पशुओं का अत्यधिक सौभाग्य है।

अपूर्वः कोऽपि कोषोयम् विद्यते तव भारति।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात्॥ 38

अर्थात् – हे देवी सरस्वती, आपका विद्या रूपी कोष या खजाना अपूर्व है। यह व्यय करने से बढ़ता है और संग्रह या संचय करने से नष्ट होता है।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥ 39

  अर्थात् – जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा-भाव करने वाले होते हैं। उनकी आयु (उम्र), विद्या (ज्ञान), कीर्ति (यश) और बल (शक्ति) इन चारों में वृद्धि (उन्नति) होती है।

 

यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्।
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति॥ 40
अर्थात् – जैसे हजारों गायों के बीच में बछड़ा (गाय का बच्चा) छोड़ दिया जाए तो वह अपने माता के पास पहुँच जाता है । ठीक उसी प्रकार मनुष्य जो कर्म करता है वह किया हुआ कर्म कर्ता (करने वाले) के पीछे-पीछे चलता है। अर्थात् कर्म का फल अवश्य मिलता है।

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Conclusion

Sanskrit Shlok हमारे जीवन को सरल और आसन बना देता है इससे अच्छा मार्गदर्शक और पथप्रदर्शक कोई नहीं हो सकता है , तो दोस्तों उम्मीद करता हूँ कि यह article आपको पसंद आया होगा। धन्यवाद !

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